बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - दीक्षा राम कथा - दीक्षानरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, प्रथम सोपान
दो
गौतम दिन-भर सबसे अधिक व्यस्त रहे। वह नहीं जानते थे कि दिन-भर उनका पुत्र शत किसके पास रहा। वह नहीं जानते थे कि अहल्या कहां रही और क्या करती रही; पर जिस किसी समारोह में कुलपति का अपनी अर्द्धांगिनी के साथ उपस्थित होना आवश्यक था, वहां उन्होंने अहल्या को सदा उपस्थित पाया। वह जानते थे, अहल्या अपने दायित्व के प्रति पूर्णतः सजग थी। आश्रम के संचालन में अकेला कुलपति कभी भी समर्थ नहीं होता, यद्यपि नाम केवल कुलपति का ही होता है। कुलपति की पत्नी आश्रम के दैनिक कार्यक्रम का अनिवार्य अंग तो होती ही है, ऐसे सम्मेलनों के अवसर पर उसका दायित्व और भी बढ़ जाता है। इन सम्मेलनों में यज्ञों, गोष्ठियों, विचार-वार्ताओं, प्रवचनों के कारण कुलपति तो अपने स्थान से हिल भी नहीं सकता। उसकी पत्नी आश्रमवासियों तथा आए हुए अभ्यागतों की देख-भाल तथा आतिथ्य इत्यादि तो करती ही है-यथा आवश्यकता, उन समारोहों में कुलपति के साथ उपस्थित भी होती है तथा अनिवार्य होने पर, चर्चित समस्याओं पर अपना मत भी प्रकट करती है। वस्तुतः ऐसे सम्मेलनों की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि कुलपति में बुद्धि तर्क, ज्ञान की पिपासा, सहिष्णुता एवं ईमानदारी हो, तथा साथ ही साथ यह भी आवश्यक है कि कुलपति की पत्नी बुद्धिमती, विदुषी, नम्र तथा व्यवहार कुशल हो।
गौतम जानते थे कि उनकी पत्नी अहल्या में ये सारे गुण हैं। उन्हें पूरा विश्वास था कि अहल्या की सुव्यवस्था के कारण, आश्रम में सारे कार्य सुचारु रूप से चल रहे होंगे और बालक शत भी किन्हीं सुयोग्य हाथों में होगा, कदाचित् आचार्य ज्ञानप्रिय की पत्नी सदानीरा के पास।...साथ ही कहीं वे पिछली संध्या की घटना भूल नहीं पाते। इन्द्र का वह एक वाक्य! उपस्थित जन-समुदाय पर उसकी प्रतिक्रिया, और अहल्या का वह मर्यादित-संतुलित उत्तर!
अहल्या उस घटना से काफी विचलित हो गई थी, किंतु गौतम जानते हैं कि वह अवसर की मर्यादा के प्रति कितनी जागरूक थी। उसने अपने मन को बांधा होगा, स्वयं को समझाया होगा और परिणामतः दिन-भर में जब कभी वह, किसी उत्सव में दिखाई पड़ी-पर्याप्त संतुलित और महिमामयी दिखी। उसने अपने आहत तथा अपमानित मान की मर्यादा की रक्षा की थी, अन्यथा जरा-सी असावधानी से सारा वातावरण बिगड़ जाता...
दिन के अन्तिम कार्यक्रम को पूर्ण कर गौतम जब अपनी कुटिया के एकांत में लौटे, तो रात का अंधकार काफी गहरा हो चुका था। शत को गोद में लिए, अहल्या दीपक के पास बैठी थी और अजाने ही कभी उसके बालों को और कभी उसके शरीर को, स्नेक्भरी क्येलियों से धीरे-धीरे सहला देती थी। किंतु गौतम की आंखों से छिपा नहीं रह सका कि अन्य दिनों के समान, शत को गोद में लिए होने पर भी, न तो उसका मन तुष्ट था, न उसकी आंखों से ममता ही झर रही थी। कहीं कुछ-न-कुछ असहज अवश्य था।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह